नई दिल्ली। मायावती की दिली ख्वाहिश है कि वो एक दिन भारत की प्रधानमंत्री बनेंगीं. उनके गठबंधन सहयोगी अखिलेश यादव ने भी सार्वजविक रूप से कहा है कि वो मायावती की इस इच्छा में रोड़ा नहीं बनेंगे. लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या कोई व्यक्ति उत्तर प्रदेश में सिर्फ़ 38 सीटों पर चुनाव लड़कर भारत का प्रधानमंत्री बनने का ख़्वाब देख सकता है?
मायावती ने हमेशा मुसीबतों का बहुत जीवटता से सामना किया है और चुनौतियों के मुंह से सफलता को खींचा है. अपने पिता से विद्रोह कर वो अपने घर से बाहर निकल आईं. उनकी पार्टी के लोग इंतज़ार करते रहे कि कब कांशीराम की मौत के बाद वो मुंह के बल गिरें, लेकिन उन्होंने उन्हें ही पार्टी के बाहर का रास्ता दिखाया. मुलायम सिंह यादव ने उन्हें डराने की कोशिश की, लेकिन उन्हें भी मुंह की खानी पड़ी. राजनीतिक पंडितों ने 2007 में त्रिशंकु विधानसभा की भविष्यवाणी की, लेकिन वो भी ग़लत साबित हुए.
लगातार तीन चुनावों में हार के बाद मायावती की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा को धक्का ज़रूर लगा है, लेकिन क्या इसका मतलब ये लगाया जाए कि मायावती का राजनीतिक करियर उतार पर है?
भारतीय राजनीति का इतिहास बताता है कि किसी जीवित राजनेता चाहे वो कितने भी चुनाव हार चुका हो, उसकी राजनीतिक ‘ऑबिच्युरी’ लिखना बहुत ख़तरनाक है. कई लोग राजनीतिक पंडितों और लोगों द्वारा दरकिनार कर दिए जाने के बावजूद कल्पनातीत ऊंचाइयों को छू पाने में सफल रहे हैं.