दिल्ली I दिल्ली त्रिलोकपुरी के रहने वाले सुरेश 2014 से ई-रिक्शा चला रहे हैं. इससे पहले वो पैडल रिक्शा चलाते थे. दिलीप दिन में पार्ट टाइम ई-रिक्शा चलाते हैं और एक दिन में 500 से 800 रुपए तक कमा लेते हैं. वह बताते हैं कि उन्होंने सेकंड हैंड ई-रिक्शा 80 हजार रुपए में खरीदा था. इससे उन्हें काफी फायदा हो रहा है. सुरेश कहते हैं कि ई-रिक्शा चलाने से उनका जीवन आसान हुआ है. रोज़ाना डेढ़ सौ रुपए की लागत लगती है बैटरी चार्जिंग में और कमाई 800 से 1000 रुपए तक हो जाती है. पहले दिनभर खटना पड़ता था, तब जाकर गुजारे लायक मिल पाता था. ई-रिक्शा ऑनर को ही नहीं सवारियों को भी बहुत आराम है. मयूर विहार में रहने वाली नेहा को पहले ऑटो वालों को मेट्रो स्टेशन तक ड्रॉप करने के 50 रूपए देने पड़ते थे लेकिन अब वो बस दस रुपए में स्टेशन पहुंच जाती हैं.
2012 में यूपीए सरकार के समय से शुरू हुआ सफर
भारत में ई-रिक्शा 2012 में यूपीए की सरकार के समय में आया जब ऑस्कर फर्नांडिस सड़क-परिवहन मंत्री थे. उससे पहले केवल पैडल रिक्शा ही चलता था. सर्दी हो, गर्मी हो या बरसात 50 रुपए किराए पर रिक्शा लेकर चलाने वाला बमुश्किल 200-300 रूपए कमा पाता था. 2012 में ई-रिक्शा आया, लेकिन साल 2013 में एक दो एक्सीडेंट हुए, जिसकी वजह से दिल्ली हाई कोर्ट ने बैन कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने भी बैन कर दिया क्योंकि तब तक कोई पॉलिसी नहीं थी. ये तय नहीं किया गया था कि इसे ऑथराइज्ड व्हीकल में रखा जाएगा या पैडल रिक्शा में रखा जाएगा. इलेक्ट्रिकल व्हीकल की कोई पॉलिसी उस समय नहीं थी. 2014 में जब एनडीए की सरकार बनी, नितिन गडकरी परिवहन मंत्री बनें तो जून 2014 में उन्होंने इसकी पॉलिसी बनाई गई.
मैन्युफैक्चरर्स की अनियमितता पर सवाल
इलेक्ट्रिक व्हीकल मैन्युफैक्चरर सोसाइटी के जनरल सेक्रेटरी राजीव तुली कहते हैं कि यहां पर प्रोडक्ट पहले आया और पॉलिसी बाद में आई, कुछ मैन्युफैक्चरर ने अप्रूव करा लिया, जबकि उससे पहले बहुत सारे मैन्युफैक्चरर अनअप्रूव्ड ई-रिक्शा अब तक भी बेच रहे हैं. सरकार अपने रूल को इंप्लीमेंट नहीं करवा पाई, क्योंकि नियम केंद्र सरकार ने बनाए और कई राज्यों ने इसे ठीक से लागू नहीं किया. ये नियम कॉन्करेंट लिस्ट में था. कॉन्करेंट लिस्ट वो होती है, जिसमें कानून बनाने का अधिकार राज्य और केंद्र दोनों को होता है. स्टेट के पास ये ऑप्शन होता है कि वो सेंटर गर्वमेंट के नियम को जस का तस लागू कर दें या राज्य के हिसाब से उसमें कुछ बदलाव करें.
पैडल रिक्शा की ठेकेदारी को समाप्त करना
दरअसल बैटरी रिक्शा इसलिए लाया गया ताकि मैन टू मैन पुलिंग वाला पैडल रिक्शा बंद हो, जो ठेकेदारी पर चलता है. उसे ऑनरशिप में चलाया जाए. इस वजह से सरकार ने ई-रिक्शा को मुद्रा लोन में भी शामिल करवा दिया. कुछ राज्यों ने केंद्र सरकार के इस नियम को अपने राज्य में इंप्लीमेंट कराया, कुछ राज्यों ने चालक ही मालिक वाला नियम नहीं लगाया. इसकी वजह से कुछ जगहों पर ठेकेदारी अभी भी चल रही है. दिल्ली में अगर कोई ई-रिक्शा खरीदता है तो उसके नाम पर केवल एक ही ई-रिक्शा रजिस्टर हो सकता है. इसके साथ रिक्शा चालक का लर्निंग लाइसेंस बनेगा और उसके बाद परमानेंट लाइसेंस बनेगा. जब ये CMVR रूल में आ गया तो इसका रजिस्ट्रेशन भी हो रहा है और इसका इंश्योरेंस भी होने लगा. जिन कंपनियों ने CMVR के रूल के हिसाब से ई रिक्शा बनाया है, उन्हीं का रजिस्ट्रेशन होता है. जब सरकार की पांच एजेंसियों में से किसी से भी ई-रिक्शा अप्रूव हो जाता है तो फिर वो ट्रांसपोर्ट डिपार्टमेंट की वेबसाइट पर उस कंपनी का ई-रिक्शा दिखने लगता है. इसके बाद देशभर में आप कहीं भी अपना ई-रिक्शा बेचकर उसे रजिस्टर कर सकते हो.
बिना नंबर प्लेट के बैटरी रिक्शा
आप लोग जब सड़क पर बैटरी रिक्शा देखते हैं तो कई बिना नंबरप्लेट के दिखाई देते हैं. कीर्ति नंगर मेट्रो स्टेशन पर ई-रिक्शों की बेतरतीब भीड़ से परेशान भावना कहती हैं कि सरकार को अनअप्रूव्ड और अनफिट ई -रिक्शों पर एक्शन लेना होगा. राजीव तुली जो खुद बैटरी रिक्हशा मैन्युफ्रैक्चरर हैं कहते हैं कि जब ई-रिक्शा पर सवाल उठाते हैं तो हमारी छवि भी खराब होती है. हमने देश के कई आरटीओ और कई ट्रांसपोर्ट कमिश्नर को लेटर लिखकर उनसे अप्रूव्ड और अनअप्रूव्ड ई-रिक्शा का डाटा मांगा हैं, लेकिन इसका सही डाटा आरटीओ के पास भी नहीं है, क्योंकि केंद्र सरकार ने ई-रिक्शा के लिए जो नियम बनाएं, उसे बहुत सारे आरटीओ और ट्रांसपोर्ट कमिश्नर्स ने समझा ही नहीं. इसके लिए कई राज्य सरकारें लाइसेंस ही नहीं मांगती हैं.