Modi-Jinping Meeting in Russia: भारत और चीन ने अपने विवादित सीमा क्षेत्र पर चार साल से जारी सैन्य गतिरोध को समाप्त करने का समझौता किया है।
यह कदम तब आया है जब दोनों देशों के बीच 2020 में लद्दाख की गलवान घाटी में हिंसक झड़प के बाद रिश्ते दशकों में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गए थे।
भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने बताया कि यह समझौता संकेत देता है कि “चीन के साथ डिसइंगेजमेंट की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है।”
इसी के साथ, चीन ने भी इस बात की पुष्टि की और कहा कि वह “भारत के साथ मिलकर इस योजना को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए काम करेगा।”
अहमदाबाद और महाबलीपुरम तक, मोदी ने बढ़ाया दोस्ती का हाथ
भारत हमेशा से अपने पड़ोसी देशों के साथ अच्छे रिश्तों को लेकर मुखर रहा है। लेकिन भारत के भरोसे की आड़ में चीन और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी अक्सर धोखा देते रहे हैं।
पहले अहमदाबाद और फिर महाबलीपुरम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तहेदिल से चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग का स्वागत किया, लेकिन इसके बावजूद चीन ने भारत को धोखा दिया।
अहमदाबाद और महाबलीपुरम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकातें भारत और चीन के बीच रिश्तों को मजबूत करने के उद्देश्य से आयोजित की गई थीं। इन बैठकों का मुख्य उद्देश्य दोनों देशों के बीच व्यापार, सांस्कृतिक, और कूटनीतिक संबंधों को बेहतर बनाना था।
जब शी जिनपिंग 2014 में भारत आए, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनका स्वागत अहमदाबाद में किया था। यह मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद शी जिनपिंग की भारत यात्रा थी, और इसका उद्देश्य दोनों देशों के बीच व्यापारिक और कूटनीतिक संबंधों को सुधारना था।
मोदी ने उन्हें अहमदाबाद के साबरमती आश्रम और अन्य ऐतिहासिक स्थलों पर ले जाकर भारत की सांस्कृतिक धरोहर से रूबरू कराया। दोनों नेताओं की झूला झूलते हुए तस्वीरें खूब चर्चा में रही थीं।
इसके बाद, 2019 में दोनों नेताओं की दूसरी अनौपचारिक बैठक तमिलनाडु के महाबलीपुरम में हुई। इसे “चेनई कनेक्ट” के नाम से जाना जाता है। इस बैठक का उद्देश्य सीमा विवाद जैसे मुद्दों को सुलझाने के लिए संवाद बढ़ाना और सहयोग को मजबूत करना था।
महाबलीपुरम का चयन इसलिए किया गया था क्योंकि यह एक ऐतिहासिक स्थल है और चीन और भारत के बीच प्राचीन व्यापार और सांस्कृतिक संबंधों का प्रतीक है। इस मीटिंग के कुछ ही महीने बाद चीन ने भारत की पीठ में छुरा घोंपने का काम किया और गलवान घाटी झड़प हुई।
भारत-चीन सीमा विवाद का इतिहास
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद कोई नया मुद्दा नहीं है। यह विवाद दशकों पुराना है, और इसका प्रमुख कारण 3,488 किलोमीटर लंबी लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (LAC) है जो दोनों देशों के बीच की वास्तविक सीमा है।
यह सीमा तीन क्षेत्रों में विभाजित है – पश्चिमी क्षेत्र (लद्दाख), मध्य क्षेत्र (उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश), और पूर्वी क्षेत्र (अरुणाचल प्रदेश)।
1962 का भारत-चीन युद्ध
1962 में दोनों देशों के बीच एक संक्षिप्त लेकिन विनाशकारी युद्ध हुआ था, जिसमें चीन ने पश्चिमी क्षेत्र में अक्साई चिन पर कब्जा कर लिया था। यह युद्ध मुख्य रूप से सीमा रेखा की अस्पष्टता के कारण हुआ था। चेयरमैन माओ के नेतृत्व में चीन लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में सीमा विवाद को बलपूर्वक निपटाना चाहता था। इसलिए सीमा की यह समस्या युद्ध का कारण बन गई।
1967 और 1987 की झड़पें
1967 में सिक्किम में और 1987 में अरुणाचल प्रदेश में भी दोनों देशों के बीच झड़पें हुईं। हालांकि, इन झड़पों ने बड़े पैमाने पर संघर्ष का रूप नहीं लिया, लेकिन इनसे दोनों देशों के बीच तनाव बना रहा।
1993 और 1996 के समझौते
इन समझौतों के बाद भारत और चीन के बीच सीमा पर शांति बनाए रखने के लिए कई कदम उठाए गए। इन समझौतों में कहा गया कि दोनों देश सीमा पर सैनिकों की तैनाती को कम करेंगे और सीमा विवाद को बातचीत से सुलझाने का प्रयास करेंगे।
डोकलाम (2017) और गलवान (2020) के तनाव
2017 में भूटान की सीमा से सटे डोकलाम में दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ा, जब भारतीय और चीनी सैनिक आमने-सामने आ गए। हालांकि यह विवाद कूटनीतिक वार्ता के बाद सुलझा लिया गया। लेकिन 2020 में लद्दाख की गलवान घाटी में हिंसक झड़प हुई जिसमें भारत के 20 सैनिक शहीद हुए। इसके बाद दोनों देशों के बीच सैन्य और कूटनीतिक स्तर पर लगातार बातचीत चलती रही।
अब सवाल यह है कि भारत और चीन के बीच समझौते की घोषणा अभी क्यों की गई? विशेषज्ञों का मानना है कि इसके पीछे ब्रिक्स शिखर सम्मेलन प्रमुख वजह है।
5 साल बाद कैसे ढीले पड़े चीन के तेवर?
1. कूटनीतिक दबाव और BRICS सम्मेलन
भारत और चीन दोनों ही तेजी से बढ़ती वैश्विक चुनौतियों और अपने-अपने क्षेत्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए सीमा पर स्थिरता चाहते हैं। दोनों देशों की अर्थव्यवस्था और रणनीतिक स्थिति के लिए लंबे समय तक सीमा पर तनाव को बनाए रखना सही नहीं था।
यह समझौता उस समय हुआ है जब भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ब्रिक्स सम्मेलन के लिए रूस के कजान शहर में मिलने वाले हैं।
यह सम्मेलन भारत और चीन दोनों के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि दोनों देश इस मंच पर वैश्विक आर्थिक और सुरक्षा मुद्दों पर अपनी स्थिति मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं।
2. व्यापार पर असर
चीन लंबे समय से अमेरिका के साथ भारत के शीर्ष दो व्यापारिक साझेदारों में से एक रहा है। 2023 और 2024 में, यह भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार था।
भारत और चीन का द्विपक्षीय व्यापार $118.4 बिलियन था। इसके अलावा, चीन भारत का सबसे बड़ा माल स्रोत और दूरसंचार हार्डवेयर से लेकर भारतीय दवा उद्योग के लिए कच्चे माल तक औद्योगिक उत्पादों का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बना हुआ है।
तनाव कम करना चीन के लिए भी सुविधाजनक है क्योंकि वह ब्रिक्स सहित बहुपक्षीय मंचों के माध्यम से अपने वैश्विक प्रभाव का विस्तार करने पर जोर देता है।
कई चीनी कंपनियां 2020 के बाद भारत में व्यापार करने के लिए संघर्ष कर रही हैं। क्योंकि भारत ने निवेश मानदंडों को कड़ा कर दिया और लोकप्रिय चीनी ऐप्स पर प्रतिबंध लगा दिया था। अब ये चीनी कंपनियां संबंधों को फिर से शुरू करने की उम्मीद कर रही हैं। 2020 की घटनाओं के बाद भारत ने चीनी निवेश और वीजा पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए थे।
3. चीन की आंतरिक स्थिति
चीन को अपने घरेलू मोर्चे पर कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिसमें आर्थिक मंदी और क्षेत्रीय अस्थिरता शामिल हैं। ऐसे में चीन भी अपने पड़ोसी देशों के साथ तनाव को कम करके आंतरिक समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहता है।
4. भारत की रणनीतिक स्थिति
भारत इस समय अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के साथ अपने रिश्तों को मजबूत कर रहा है, ऐसे में चीन के साथ किसी भी तरह के सैन्य टकराव को टालना चाहता है ताकि वह अपनी अर्थव्यवस्था पर ध्यान केंद्रित कर सके। साथ ही, भारत अपने रणनीतिक हितों के अनुसार एशिया में भी स्थिरता चाहता है।
आगे की राह
इस समझौते के बावजूद, भारत और चीन के बीच सीमा विवाद पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है। दोनों देशों के बीच अभी भी कई विवादित क्षेत्र हैं, और दोनों देशों के बीच अविश्वास की एक लंबी परंपरा रही है।
हालांकि, यह समझौता दोनों देशों के बीच संबंधों को स्थिर करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। भारत और चीन के बीच कूटनीतिक और सैन्य वार्ताएं जारी रहेंगी, लेकिन यह देखना होगा कि क्या यह समझौता लंबे समय तक चलने वाली शांति की दिशा में एक मजबूत आधार बना सकता है।
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