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बजट में बच्चों को क्या मिला, एक और अवसर चूक गई सरकार?…

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“…जब भी तुम्हें संदेह हो तो उस सबसे गरीब और कमज़ोर आदमी/स्त्री का चेहरा याद करो जिसे तुमने देखा हो और खुद से पूछो कि तुम जो कदम उठाने जा रहे हो, क्या उससे उस आदमी को कोई फायदा होगा।” महात्मा गांधी

दुनिया में बच्चों की सबसे बड़ी आबादी भारत में है। देश की कुल आबादी में 44.20 करोड़ बच्चे हैं और आबादी में 37 प्रतिशत हिस्सा 18 साल से कम उम्र के बच्चों का है।

संसद में हाल ही में पेश हुआ बजट और आने वाले दो बजट हमारे लिए वो अवसर हैं जहां हम एक पूरी पीढ़ी के सपनों और उनमें छिपी संभावनाओं का इस्तेमाल भविष्य के भारत को संवारने में कर सकते हैं।  

आज के स्वस्थ और शिक्षित बच्चे देश के कल की संपत्ति हैं। आज जब भारत विश्वगुरु बनने की राह पर है तो इस यात्रा में हमें अपने बच्चों को भी साथ लेकर चलना होगा और उन्हें शोषण से मुक्ति दिलानी होगी।

बजटीय आबंटनों में बच्चों को प्राथमिकता किसी चयन या विकल्प का विषय नहीं है बल्कि समृद्ध भारत की एक पूर्व शर्त है। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि 2024-25 के केंद्रीय बजट ने देश के बच्चों के सामने मौजूद सबसे तात्कालिक चुनौतियों खास तौर से ट्रैफिकिंग (दुर्व्यापार), बंधुआ मजदूरी और शोषण से उनकी सुरक्षा और उनके समग्र विकास की दिशा में बढ़ने का मौका गंवा दिया है। 

असंगठित क्षेत्र में बच्चों से बाल मजदूरी ट्रैफिकिंग का सबसे निकृष्टतम रूप है लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि यह हमारे समय की एक दुर्भाग्यपूर्ण वास्तविकता है। और यह इस तथ्य के बावजूद है कि कानूनन मनुष्यों का दुर्व्यापार प्रतिबंधित है और भारत के संविधान के अनुच्छेद 23 में वर्णित मौलिक अधिकारों के तहत दंडनीय है।

जब इस तरह के मामले प्रकाश में आते हैं तो मजिस्ट्रेट या सब डिवीजनल मजिस्ट्रेट (एसडीएम) इस बात की तस्दीक करने के लिए मामले की जांच करता है कि वह बच्चा वास्तव में बंधुआ मजदूर है या नहीं। जांच और सत्यापन के बाद बच्चा या बच्ची अगर बंधुआ मजदूर घोषित की जाती है तो उसे एक ‘रिलीज सर्टीफिकेट’ या रिहाई प्रमाणपत्र जारी किया जाता है।

ऐसे में यदि आरोपी को अदालत से सजा होती है तो बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास की केंद्र की योजना के तहत पीड़ित बच्चा 3 लाख रुपए तक के मुआवजे का हकदार है अगर वह जाहिरा तौर पर किसी वेश्यालय, मसाज पार्लर, प्लेसमेंट एजेंसी में यौन शोषण या ट्रैफिकिंग से पीड़ित हुआ हो तो।

2017 से 2024 (मार्च) के बीच विभिन्न राज्य सरकारों ने 3341 बच्चों को बंधुआ मजदूरी करते पाया और उन्हें ‘रिलीज सर्टीफिकेट’ जारी किए। इन बच्चों के लिए मुआवजे की रकम 100 करोड़ से भी ज्यादा बैठती है और यह राशि केंद्रीय बजट से दी जानी है।  

लेकिन स्थिति यह है कि बंधुआ बाल मजदूरों को क्षतिपूर्ति योजना के तहत आबंटित राशि 2023-24 के बजट में आबंटित 20 करोड़ रुपए से घटाकर इस बार 6 करोड़ कर दी गई है। ऐसे में यदि बच्चे से बंधुआ मजदूरी कराने के आरोपी को सजा हुई और हर बच्चे को 3 लाख रुपए का मुआवजा मिला तो 6 करोड़ रुपए की इस राशि से महज 200 बाल मजदूरों का पुनर्वास हो सकता है। बाकी बचे 3141 बंधुआ बाल मजदूरों को संविधान में दी गई गारंटी के बावजूद न्याय से वंचित रहना पड़ेगा। 

नीरजा चौधरी बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1984) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा कि मुक्त कराए गए बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास में नाकामी उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है और पुनर्वास के बिना सिर्फ बंधुआ मजदूरी से मुक्ति बंधुआ मजदूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम 1976 के उद्देश्यों को पूरा नहीं करती।  

श्रम, कपड़ा और कौशल विकास विकास (2022-23) पर लोकसभा की स्थायी समिति की 41वीं रिपोर्ट इस बात को रेखांकित करती है कि श्रम व रोजगार मंत्रालय की ओर से राज्यों व केंद्रशासित क्षेत्रों को बार-बार परामर्श भेजने के बावजूद बंधुआ मजदूरी के उन्मूलन के प्रयासों ने कतई रफ्तार नहीं पकड़ी है।

समग्र पुनर्वास के अभाव में ये बच्चे देरसबेर फिर उसी गरीबी, अशिक्षा और दासता की कैद में फंस जाएंगे जिससे इन्हें मुक्त कराया गया है।

21वीं सदी के भारत में इस दुष्चक्र के जारी रहने की कोई वजह नहीं है। बाल श्रम, बंधुआ मजदूरी के उन्मूलन और पुनर्वास राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना और केंद्र की अन्य योजनाओं के अधीन विषय हैं।

ऐसे में केंद्रीय बजट में इन योजनाओं को आबंटित राशि में भारी कटौती से बंधुआ मजदूरी और बच्चों से बंधुआ मजदूरी सहित बाल सुरक्षा की दिशा में हाल के वर्षों में देश ने जो भी प्रगति की है, उस पर पानी फिरने का खतरा है।

बजट आबंटन में यह कटौती 2030 तक तकरीबन 18 करोड़ 40 लाख बंधुआ मजदूरों की पहचान, उनकी मुक्ति और पुनर्वास के केंद्र सरकार के सपने को पूरा करने की राह में बाधा बन सकती है।

इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए दिशानिर्देशों के पालन और उन पर समय से अमल के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग बंधुआ मजदूरों की पहचान, उनकी मुक्ति और पुनर्वास के लिए दो परामर्श जारी कर चुका है।  

अगर बच्चों के श्रेणीकरण, उद्योगों की सूची और जुर्माने की बात करें तो बाल मजदूरी के खात्मे के लिए भारत की नीतिगत रूपरेखाएं सबसे समग्र और विश्व में सबसे बेहतर मानी जा सकती हैं। इसे शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 से और बल मिला है जो इस उद्देश्य से लाया गया था कि बच्चों का स्कूल जाना सुनिश्चित किया जाए ताकि उन्हें बचपन में ही मजदूरी के दलदल में फंसने से बचाया जा सके।  

बंधुआ मजदूरी के इरादे से बाल दुर्व्यापार में शामिल लोगों के तौर-तरीकों, प्रौद्योगिकी के उपयोग और ट्रैफिकिंग के लिहाज से संवेदनशील और उभरते केंद्रों के बाबत नवीनतम जानकारियों से लैस रहने में मदद करते हैं। हालंकि, यह संवैधानिक आज्ञा सरकारी खजाने से अतिरिक्त समर्थन की मांग करती है ताकि कानून की भावना और नीतियां जमीनी स्तर पर क्रियान्वित होकर ठोस बदलावों में रूपांतरित हो सकें।

यह स्पष्ट है कि पुनर्वास के इंतजाम के बगैर बच्चों को बंधुआ मजदूरी से मुक्त कराने की इस पूरी कसरत का कोई फायदा नहीं है। लिहाजा, केंद्र सरकार से बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास के लिए केंद्रीय बजट और इसी तरह की केंद्र की अन्य योजनाओं के लिए आबंटित राशि पर पुनर्विचार का आग्रह है ताकि विजन 2050 की हमारी यात्रा गति पकड़ सके और संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों के अनुरूप 2025 तक बाल मजदूरी के सभी स्वरूपों का खात्मा हो सके।

(भुवन ऋभु प्रख्यात बाल अधिकार कार्यकर्ता, अधिवक्ता और चर्चित किताब ‘व्हेन चिल्ड्रेन हैव चिल्ड्रेन : टिपिंग प्वाइंट टू इंड चाइल्ड मैरेज’ के लेखक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

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